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व्य॑नि॒नस्य॑ ध॒निन॑: प्रहो॒षे चि॒दर॑रुषः। क॒दा च॒न प्र॒जिग॑तो॒ अदे॑वयोः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vy aninasya dhaninaḥ prahoṣe cid araruṣaḥ | kadā cana prajigato adevayoḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। अ॒नि॒नस्य॑। ध॒निनः॑। प्र॒ऽहो॒षे। चि॒त्। अर॑रुषः। क॒दा। च॒न। प्र॒ऽजिग॑तः। अदे॑वऽयोः ॥ १.१५०.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:150» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (अदेवयोः) जो नहीं विद्वान् हैं उनको (प्रजिगतः) जो उत्तमता से निरन्तर प्राप्त होता हुआ (अररुषः) अहिंसक (व्यनिनस्य) विशेषता से प्रशंसित प्राण का निमित्त (धनिनः) बहुत धनयुक्त जन है उसके (प्रहोषे) उसको अच्छे ग्रहण करनेवाले के लिये (कदा, चन) कभी अप्रिय वचन न कहूँ ऐसे (चित्) तू भी मत बोल ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - जो अविद्वान् पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के सङ्ग को छोड़ विद्वानों का सङ्ग करता है, वह सुखों से युक्त होता है ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

अहमदेवयोः प्रजिगतो अररुषो व्यनिनस्य धनिनः प्रहोषे कदा चनाऽप्रियं न वोचे। एवं चिदपि त्वं मा वोचेः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (अनिनस्य) यत्प्रशस्तं प्राणनिमित्तं तस्य (धनिनः) बहुधनयुक्तस्य (प्रहोषे) यो जुहोति तस्मै (चित्) अपि (अररुषः) अहिंसकस्य (कदा) (चन) (प्रजिगतः) प्रकर्षेण भृशं प्राप्नुतः। अत्र यङन्तात् परस्य लटः शतृ यङो लुक् वाच्छन्दसीति अभ्यासस्येत्वम्। (अदेवयोः) न देवौ अदेवौ तयोरदेवयोः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - योऽविदुषोरध्यापकोपदेशकयोः संगं त्यक्त्वा विदुषोः सङ्गं करोति स सुखाढ्यो जायते ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अयोग्य शिकविणाऱ्यांची व उपदेश करणाऱ्यांची संगत सोडून जो विद्वानांची संगत करतो, तो सुखी होतो. ॥ २ ॥